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Friday, January 27, 2012

नदी की आत्मकथा
मैं अपने पिता पवित्र हिमालय का प्यार पाकर पली थी। तब मैं कितनी खुशी में थी। बड़ी मजबूत ,ओज -भरी नदी थी।कल-कल करके बहकर आते वक्त राह में खड़े पेड़ पौधों से बातें करके और छोटी पहाड़ियों से बातें करके और छोटी पहाड़ियों से दोस्ती करके आती थी।वह मेरे जीवन का वसंतकाल था।मेरे जल में कई तरह की मछलियाँ थी।उनका तैरना मैं आनंद से देखती थी।बाघों का खेल ,कछुओं के पीठ से उलीचा जाना हाथियों की जलक्रीड़ा आदि मैं खुशी के साथ सहती थी।लोग अपने खेतों की सिंचाई और घर की उपयोगिता केलिए मेरा जल लेते थे ।ये सब मैं पसंद करती थी क्योंकि तब मैं उतनी स्वच्छ थी।
काल बदलने के अनुसार मेरा रूप भी बदल गया ।इसका उत्तरदायी मैं नहीं।मुझे प्यार करनेवाले लोगों ने ही मुझे गंदा करना शुरू किया ।नहाना,जानवरों को नहलाना ,कूड़ा कचरा डालना आदि से उन्होंने दुबली और गंदी हो गयी।कारखानों से लाभ उठानेवाले लोग वहाँ के अवशेष मुझ में डालते हैं। तब से मैं काली बन गयी लोगों का यह काम भी मैं मौनरूप से सहती हुँ।
मेरा दुख यह है कि स्वच्छता की बात मैं एक साबुन की टिकिया के पीछे है।क्यों ये लोग मुझ से ऎसा व्यवहार करते हैं ? क्या मैं उनका साथी नहीं हुँ ? मेरा विश्वास है कि जल्द ही जल्दवे मेरी सुरक्षा का उपाय ढूँढेंगे ।

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